झारखंड में भाजपा की चुनावी रणनीति की खामियां
झारखंड में 81 विधानसभा सीटों पर मतदान पूरा होने के बाद एग्जिट पोल में इंडिया गठबंधन की सरकार बनती नजर आ रही है। इससे साफ हो गया है कि झारखंड में न तो मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान चल पाए और ना ही असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा कामयाब हुए। एक बात और साफ हुई कि झारखंड में न तो हिंदू कार्ड चला और ना ही बांग्लादेशी घुसपैठ मुद्दा बना। ऐसा क्यों हुआ। बीजेपी यहां क्यों फेल हो गई। आज हम जानेंगे अपनी इस खबर में।
फेल होते गए तुरुप के पत्ते
आइए अब हम आपको बताते हैं कि झारखंड में बीजेपी के सारे तुरुप के पत्ते एक एक कर क्यों फेल होते चले गए। लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद से ही भाजपा ने मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान को झारखंड का प्रभारी और हिमंता बिस्वा सरमा को सह प्रभारी बना दिया था। विधानसभा चुनाव में पार्टी का माहौल बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं दोनों नेताओं की थी। क्या कार्ड खेलना है। क्या मुद्दा उठाना है। जेएमएम से किसे तोड कर पार्टी में लाना है। सारे फैसले इन्हीं दोनों नेताओं के रहे। विधानसभा चुनाव से पहले जब चंपई सोरेन सीएम थे तभी से भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाने लगी थी। तब चंपई सोरेन ने अपने एक्स अकाउंट पर इसका जवाब देते हुए लिखा भी था कि बांग्लादेश की सीमा पर केंद्र सरकार के सुरक्षा बल तैनात हैं। घुसपैठ हो रही है तो इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है। मगर, बाद में जब हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने दोबारा गद्दी संभाली तो चंपई दो दिन के लिए दिल्ली गए। पत्रकारों को बताया कि वह चश्मा बनवाने दिल्ली आए हैं। दिल्ली से नया चश्मा लेकर जब चंपई सोरेन वापस झारखंड लौटे। इसके बाद झारखंड को नए चश्मे से देखने लगे। अब चंपई को संथाल में बांग्लादेशी घुसपैठ नजर आने लगी और इसके पीछे वह झारखंड सरकार को जिम्मेदार मानने लगे।
हर चुनाव में घुसपैठ का मुद्दा उठाना पडा भारी
यही दौर काफी उथल पुथल का रहा। शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्वा सरमा ने बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठा कर खूब माहौल बनाने की कोशिश की। संथाल में बताया गया कि आदिवासी सुरक्षित नहीं है। आदिवासी जमीन पर कब्जा कर लिया गया है। मगर, घुसपैठ का मुद्दा नहीं चल पाया। क्योंकि, भाजपा यह मुद्दा हर चुनाव में उठाती रही है। जब भी झारखंड में लोकसभा या विधानसभा चुनाव हुए। भाजपा ने यही मुद्दा उठाया। जब सरकार बन गई तो शांत हो गए। साल दो हजार चौदह में भी यही मुद्दा उठाया गया। इस चुनाव के बाद भाजपा की सरकार बनी थी। पूरे 5 साल चली भी थी। मगर, तब की झारखंड सरकार को यह याद नहीं रहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का क्या करना है। झारखंड की जनता इस मुद्दे से पूरी तरह अवगत हो गई है। यही वजह रही कि इस चुनाव में यह मुद्दा जनता ने नकार दिया। भाजपा की सभा और प्रेस कांफ्रेंस में तो यह मुद्दा खूब चर्चा में होता था। मगर, आम जनता के बीच में इसकी कोई चर्चा नहीं थी।
गोगो दीदी का फार्म भराने से भी पडा फर्क
राजनीतिक जानकारों की मानें तो भाजपा इसे बड़ी देर में समझ पाई। जब तक समझ पाती तब तक काफी समय बीत चुका था। तब मामला पटरी पर लाने के लिए भाजपा ने गोगो दीदी योजना को जनता के बीच एक सरकारी योजना की तरह पेश कर दिया। योजना के फार्म भरवाए जाने लगे। मगर, इंडिया गठबंधन के नेता भाजपा की साजिश को समझ गए। जनता को बताने लगे कि यह फर्जी योजना है। फार्म भरा रहे हैं मगर, पैसा कब आएगा यह नहीं बता रहे। जनता ने गोगोदीदी योजना की शिकायत अधिकारियों से करनी शुरू कर दी। अधिकारियों ने जनता को बताया कि अभी सरकार की ऐसी कोई योजना नहीं है। तब भाजपा के नेताओं को मंच से कहना पड़ा कि जब सरकार बनेगी तो यह योजना लागू होगी। अब जनता भी चकरा गई। जब योजना सरकार ने लागू ही नहीं की है तो फार्म कहां से आ गया। इससे भाजपा की और फजीहत हुई। राजनीति के जानकारों का कहना है कि भाजपा के जो पक्के वोट थे वही उसके साथ रहे। आम जनता को पार्टी अपने साथ नहीं जोड पाई। यही नहीं, कहीं कहीं इस वोट में भी सेंध मारी हो गई। जैसे भाजपा का गढ माने जाने वाले जमशेदपुर पूर्वी में कांग्रेस के उम्मीदवार डाक्टर अजय कुमार की इमेज पर वोट पडे। यहां कांग्रेस टक्कर में आ गई।
खांटी भाजपाइयों के दरकिनार होने का भी असर
भाजपा की कमजोरी की एक और बड़ी वजह यह रही कि खांटी भाजपाई नेता दरकिनार कर दिए गए। झारखंड में ऐसा पहली बार हुआ कि बाहर से आए नेता अपनी मनमानी करते रहे और झारखंड के वरिष्ठ पुराने नेता चमन जलता देखते रहे। पार्टी के कई फैसलों पर इन वरिष्ठ भाजपाइयों में असंतोष रहा मगर, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सामने कोई बोल नहीं सका। जो लोग नाराज थे उन्हें दिल्ली बुला कर समझा दिया गया। यह लोग मान तो गए। मगर असंतोष अंदर ही अंदर सुलगता रहा। चुनाव प्रचार में या टिकट बंटवारे के बाद कहीं कुछ गडबड हुई तो झारखंड के दिग्गज भाजपाइयों के सीन में नहीं होने से डैमेज कंट्रोल में मुश्किल हुई।
टिकट बंटवारे में भी हुए गलत फैसले
टिकट बांटने से लेकर चुनाव प्रचार तक में शिवराज सिंह चौहान और हिमंता बिस्वा सरमा ने अपनी चलाई। पोटका में पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी को टिकट मिला तो यहां के स्थानीय भाजपा नेता नाराज हो गए। घाटशिला में बाबूलाल सोरेन को टिकट मिला तो वहां के टिकट के दावेदार नेता नाराज हो गए। जमशेदपुर पश्चिम की सीट एनडीए को दी गई तो यहां से भाजपा के कई नेताओं में असंतोष फैला। पूर्व डीआइजी राजीव रंजन सिंह ने इस्तीफा दे दिया। भाजपा नेता विकास सिंह बागी हो गए और निर्दलीय चुनाव लड़ कर पार्टी को नुकसान पहुंचाया। जमशेदपुर पूर्वी में पूर्व सीएम रघुवर दास की बहू पूर्णिमा साहू को टिकट दिए जाने से पूरे कोल्हान में भाजपा का माहौल खराब हो गया। कभी भाजपा नेता मंच से इंडिया गठबंधन पर परिवारवाद का आरोप लगाते नहीं थकते थे। प्रधानमंत्री और अमित शाह अपनी रैलियों में शहजादे शहजादे चिल्लाते थे। शिबू सोरेन की तरफ इशारा कर एक परिवार एक परिवार करते थे। अब भाजपा को क्या हो गया। जमशेदपुर पूर्वी में उसे रघुवर दास के परिवार के अलावा कोई और नहीं दिख रहा क्या। यह सवाल पूरे कोल्हान में जनता की जुबान पर था। चंपई सोरेन के बेटे बाबूलाल सोरेन को टिकट देना क्या परिवारवाद नहीं है। सभी यह चर्चा कर रहे थे। इस तरह मुद्दों पर भाजपा बैक फायर का शिकार हो गई।
बाहरी नेता नहीं समझ पाए झारखंड की सियासी स्थिति
स्थानीय नेताओं की नहीं चल पाने की वजह से पार्टी ने कई गलत निर्णय लिए और उसका फायदा कम हुआ नुकसान ज्यादा। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि झारखंड की राजनीति में स्थानीय नेताओं को दरकिनार करना भाजपा को महंगा पड़ा है। झारखंड के बडे नेताओं के असंतोष की वजह से कई सीटों पर भाजपा की रणनीति धराशायी हो गई। हालात यह हो गई कि चुनाव प्रचार से एक दिन पहले तक असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा बागियों को मनाते नजर आए। निरंजन सिंह की वजह से धनवार में बाबूलाल मरांडी फंस गए थे। हिमंता को निरंजन सिंह के पास उनके घर जाना पड़ा और उन्हें मना कर ले आए। मगर, धनवार में अंत तक असमंजस की स्थिति बनी रही।