रघुवर के सीएम बनने के बाद बदला अनुसूचित जनजाति सीटों का गणित
81 सीटों वाली झारखंड की विधानसभा में अनुसूचित जनजाति यानी एसटी सीटों के लिए 28 सीटें रिजर्व हैं। यह सीटें ही झारखंड की तकदीर लिखती हैं। अब तक होता रहा है कि जिस दल को एसटी सीटों पर जीत मिली झारखंड में उसकी सरकार बनी। जिस पार्टी ने एसटी सीटों का किला भेद लिया वही झारखंड की बादशाह बनी। पिछले विधानसभा चुनाव 2019 में एसटी सीटों पर जेएमएम के विधायक जीते थे और पार्टी की सरकार बनी थी। पहले भाजपा को भी एसटी सीटों पर जीत मिलती रही है। वह एसटी सीटों में जेएमएम के बराबर ही जीत दर्ज करती थी। मगर, साल 2014 के बाद हो रहे चुनावों में भाजपा को यहां से मायूसी हाथ लग रही है। ऐसा क्यों है। क्यों एसटी सीटों पर भाजपा का असर घट रहा है। इस बार इन सीटों पर क्या होगा। भाजपा जीतेगी या जेएमएम की जीत का सिलसिला बरकरार रहेगा। आज की खबर में हम एसटी सीटों का विश्लेषण करेंगे।
रघुवर को सीएम बनाने के बाद एसटी सीटों पर घटा बीजेपी का असर
एसटी सीटों का झारखंड की सियासत पर खासा दबदबा है। यही वजह है कि झारखंड में साल 2014 के विधानसभा चुनावों से पहले अनुसूचति जनजाति का ही मुख्यमंत्री बनता था। सबसे पहले सीएम बने थे बाबूलाल मरांडी, इसके बाद अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मुधु कोडा, हेमंत सोरेन और फिर चंपई सोरेन। साल 2014 का चुनाव भी भाजपा ने अनुसूचित जनजाति से आने वाले कद्दावर नेता अर्जुन मुंडा के चेहरे पर लडा था। अनुसूचित जनजाति के मतदाताओं को इस बात का गुमान भी नहीं था कि बीजेपी अर्जुन मुंडा की जगह किसी दूसरे को सीएम बना देगी। इसीलिए चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत तक मिल गया था। ऐसी थी अर्जुन मुंडा की रणनीति और टिकट बंटवारा। मगर, अर्जुन मुंडा की खरसावां में हार के बाद बीजेपी ने पहली बार गैर आदिवासी सीएम रघुवर को बना दिया। कहा जा रहा है कि इसी के बाद आदिवासी सीटों पर बीजेपी का असर घट गया है। अब इंडिया गठबंधन का आदिवासी सीटों पर वर्चस्व है। साल 2014 के चुनावों के बाद आदिवासी सीटों पर सियासी समीकरण ही बदल गया है। अब इन सीटों पर इंडिया गठबंधन का असर है। साल 2019 के चुनावों में इंडिया गठबंधन ने अधिक आदिवासी सीटों पर जीत हासिल की थी। यही नहीं, हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में भी इंडिया गठबंधन को ही अधिक आदिवासी सीटों पर जीत हासिल हुई है।
साल 2019 में आदिवासी सीटों से भाजपा का हो गया सूपड़ा साफ
साल 2014 के चुनाव के बाद गैर आदिवासी सीएम बनाने से भाजपा आदिवासियों के निशाने पर आ गई। आदिवासी मतदाता अलर्ट हो गए हैं। साल 2019 के विधानसभा चुनाव में 28 सीटों में से 26 सीटें इंडिया गठबंधन के खाते में गईं। भाजपा को सिर्फ दो सीटों खूंटी और तोरपा में ही जीत नसीब हो सकी। झामुमो ने उन्नीस आदिवासी सीटों बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाडा, महेशपुर, शिकारी पाडा, दुमका, जामा, घाटशिला, पोटका, सरायकेला, चाईबासा, मझगांव, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, तमाड, सिसई, गुमला और बिशुनपुर में जीत दर्ज की थी। कांग्रेस को छह सीटों जगन्नाथपुर, खिजरी, सिमडेगा, कोलेबिरा, लोहरदगा और मनिका सीटें मिली थीं। जेवीएम के टिकट पर मांडर से जीते बंधू तिर्की बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। इस तरह, कांग्रेस के पास सात आदिवासी सीटों के विधायक हो गए थे।
साल 2014 के चुनाव में भाजपा को मिली थीं 11 आदिवासी सीटें
साल 2014 के चुनाव में भाजपा को 20 में से 11 आदिवासी सीटें मिली थीं। भाजपा ने बोरियो, दुमका, घाटशिला, पोटका, खूंटी, खिजरी, मांडर, सिसई, गुमला, सिमडेगा और मनिका सीट पर कब्जा जमाया था। इस चुनाव में जेएमएम ने 13 सीटों पर जीत दर्ज की थी। यह तेरह सीटें थीं- बरहेट, लिट्टीपाडा, महेशपुर, शिकारीपाडा, जामा, सरायकेला, चाईबासा, मझगांव, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, तोरपा और बिशुनपुर। इस चुनाव में कांग्रेस को एक भी एसटी सीट पर जीत नहीं मिली थी। आजसू ने तमाड और लोहरदगा सीट जीती थी। जगन्नाथपुर और कोलेबीरा में निर्दलीय उम्मीदवार विधायक बने थे। इस तरह, हम देखते हैं कि साल 2014 के चुनाव में आदिवासी सीटों पर जेएमएम और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला रहा था। दोनों दलों को लगभग बराबर बराबर सीटें मिली थीं। मगर, इस चुनाव के बाद जब बीजेपी का गैर आदिवासी सीएम बना तो आदिवासी सीटों पर बाजी उलट गई है। अब बीजेपी आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए हाथ पैर मार रही है। डेमोग्राफी बदलने का मुद्दा इसी कोशिश का परिणाम बताया जा रहा है।
2009 में जेएमएम को 10 व बीजेपी को 9 आदिवासी सीटें
साल 2009 के विधानसभा चुनावों में जेएमएम को 28 एसटी सीटों में से 10 सीटों पर विजय हासिल हुई थी। भाजपा को इससे एक सीट कम मिली थी। भाजपा ने 9 आदिवासी सीटें अपनी झोली में डाली थीं। चार निर्दलीय उम्मीदवार जगन्नाथपुर, मांडर, बिशुनपुर और कोलेबीरा आदिवासी सीटों से जीते थे। हम आपको बता दें कि कांग्रेस को सिर्फ दो एसटी सीटों पर जीत मिली थी। आजसू, जदयू और जेवीएम को एक-एक एसटी सीटें मिली थीं। जेएमएम को बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाडा, शिकारीपाडा, दुमका, जामा, घाटशिला, सरायकेला और चाईबासा की सीट मिली थी। भाजपा पोटका, मझगांव, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, खूंटी, गुमला, सिमडेगा और मनिका सीट पर जीती थी। कांग्रेस ने खिजरी व सिसई, आजसू ने लोहरदगा और जेवीएम ने महेशपुर आदिवासी सीटों पर विजय हासिल की थी।
साल 2005 में भाजपा व जेएमएम को मिली थीं बराबर सीटें
साल 2005 में आदिवासी सीटों पर जेएमएम और बीजेपी को बराबर-बराबर जीत मिली थीं। दोनों दलों ने नौ-नौ सीटें जीती थीं। जेएमएम ने बरहेट, लिट्टीपाडा, महेशपुर, शिकारीपाडा, पोटका, सरायकेला, मंझगांव, चक्रधरपुर और गुमला सीटों पर जीत दर्ज की थी। भाजपा ने बोरियो, जामा, चाईबासा, खरसावां, तोरपा, खूंटी, खिजरी, सिसई और बिशुनपुर सीट अपने नाम की थी। कांग्रेस को तीन आदिवासी सीट पर जीत मिली थी। इनमें घाटिशला, सिमडेगा और लोहरदगा सीटें शामिल हैं। पांच आदिवासी सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे। राजद और जदयू को एक-एक एसटी सीट मिली थी। राजद को मनिका और जदयू को तमाड सीट मिली थी। दुमका से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर स्टीफन मरांडी जीते थे।
क्या होगा डेमोग्राफी बदलने के मुद्दा का
भाजपा आदिवासी सीटों पर अपना असर दोबारा कायम करने के लिए जद्दोजहद कर रही है। इसके लिए डेमोग्राफी का मुद्दा तैयार किया गया है। इसी मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाने और आदिवासियों का मूड बदलने के लिए भाजपा चंपई सोरेन को अपनी पार्टी में लाई थी। चंपई ने संथाल का कई दौरा भी किया है। मगर, आदिवासियों का मूड क्या है यह चुनाव नतीजे बताएंगे। जामा के रहने वाले एक आदिवासी यूवक का कहना था जनता सब समझ रही है। संथाल इलाके में इस बात को लेकर खूब चर्चा है कि डेमोग्राफी के मुद्दे की हकीकत क्या है। संथाल में इस पर लोग अब भी बहस करते नजर आते हैं। बहस के मुद्दे में केंद्र सरकार और गृह मंत्रालय चर्चा का विषय हैं।