रांची : झारखंड में राजनीतिक सरगर्मियां अपने चरम पर हैं, क्योंकि राज्य तैयार है अपने पांचवें विधानसभा चुनाव के लिए. ये चुनाव दो चरणों में होंगे, 13 नवंबर और 20 नवंबर को, और मतगणना तीन दिन बाद, यानी 23 नवंबर को होगी. ये चुनाव झारखंड के 24 साल के राजनीतिक इतिहास में पांचवां बड़ा मौका है, जिसमें जनता एक बार फिर से अपनी सरकार चुनेगी. झारखंड ने 24 साल के अपने इतिहास में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. 13 अलग-अलग मौकों पर 7 अलग-अलग नेताओं ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है. सिर्फ एक नेता, यानी बीजेपी के रघुवर दास ने अपना कार्यकाल पूरा किया. 2005 की विधानसभा को याद करें तो वहां पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदले गए, और ये भी गौर करने वाली बात है कि किसी भी पार्टी को लगातार दोबारा सत्ता का स्वाद नहीं मिला है. इसका मतलब यह है कि झारखंड की राजनीति में अस्थिरता हमेशा हावी रही है.
झारखंड विधानसभा की संरचना
अब बात करते हैं विधानसभा की संरचना की. झारखंड विधानसभा में कुल 82 सीटें हैं, जिनमें से 81 सीटों पर चुनाव होते हैं और एक सदस्य को मनोनीत किया जाता है. इन 81 सीटों में से 28 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, 9 सीटें अनुसूचित जाति के लिए हैं, और बाकी 44 सीटें सामान्य वर्ग के लिए खुली हैं. लेकिन असली खेल तो एसटी सीटों पर है. जो पार्टी इन 28 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल करती है, वही सरकार बनाने के सबसे करीब होती है. यानी झारखंड की सत्ता की चाबी इन्हीं 28 सीटों के पास है.
2019 में JMM की जबरदस्त परफॉर्मेंस
अब अगर हम 2019 के विधानसभा चुनाव की बात करें, तो झारखंड मुक्ति मोर्चा को अनुसूचित जनजाति की सीटों पर जबरदस्त समर्थन मिला था. इन 28 सीटों में से 26 सीटें यूपीए यानी इंडिया ब्लॉक के पास गईं. अकेले झामुमो ने इनमें से 19 सीटों पर कब्जा जमाया था. इसी दमदार परफॉर्मेंस की वजह से झामुमो 20 से छलांग लगाकर 30 के जादुई आंकड़े तक पहुंच गया. झामुमो को न सिर्फ आदिवासी वोट, बल्कि क्रिश्चियन, मुसलमान, और महतो समुदायों का भी भरपूर समर्थन मिला. वहीं, बीजेपी को सबसे बड़ा झटका आदिवासी क्षेत्रों में लगा, जहां उसे सिर्फ दो सीटों पर संतोष करना पड़ा.
इन सीटों का है खास महत्व
अब सवाल उठता है, कौन सी हैं ये 28 आरक्षित सीटें ? ये सीटें हैं – बोरियो, बरहेट, लिट्टीपाड़ा, महेशपुर, शिकारीपाड़ा, दुमका, जामा, घाटशिला, पोटका, सरायकेला, चाईबासा, मझगांव, जगन्नाथपुर, मनोहरपुर, चक्रधरपुर, खरसावां, तमाड़, तोरपा, खूंटी, खिजरी, मांडर, सिसई, गुमला, विशुनपुर, सिमडेगा, लोहरदगा, मनिका, और कोलेविरा. ये वही सीटें हैं, जिन पर इस बार भी इंडिया और एनडीए के बीच घमासान होगा.
पिछले चुनावी प्रदर्शन पर एक नजर
झारखंड की राजनीति में गठबंधन का हमेशा बड़ा रोल रहा है. 2014 में झामुमो और कांग्रेस अलग-अलग लड़े थे और सिर्फ 25 सीटें हासिल कर पाए थे, जबकि 2019 में एक साथ चुनाव लड़ा तो 47 सीटों तक पहुंच गए. बीजेपी भी 2014 में आजसू के साथ गठबंधन में 42 सीटें लेकर आई थी, लेकिन 2019 में अकेले लड़ने पर सिर्फ 25 सीटें जीत पाई. इससे साफ है कि झारखंड में गठबंधन की रणनीति हमेशा कारगर साबित हुई है.
लोकसभा में BJP का दमदार प्रदर्शन
इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने झारखंड में जोरदार वापसी की थी. एनडीए ने राज्य की 14 संसदीय सीटों में से 9 पर जीत दर्ज की थी. पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी दावा किया कि हमने 51 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाए रखी है. अब सवाल ये है कि क्या बीजेपी विधानसभा चुनाव में भी वही करिश्मा दोहरा पाएगी ?
BJP की चुनौती: आदिवासी वोट बैंक
आदिवासी मतदाताओं को लेकर बीजेपी के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं. अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 28 विधानसभा सीटें बीजेपी के लिए कमजोर कड़ी साबित हो रही हैं. 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इन 28 सीटों में से केवल दो सीटें जीती थीं, और इस साल के लोकसभा चुनाव में भी स्थिति कुछ खास बेहतर नहीं रही. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी एसटी के लिए आरक्षित पांचों लोकसभा सीटें हार गई.
इस बार के समीकरण और चुनौतियां
अब झारखंड का राजनीतिक पारा चढ़ा हुआ है. राज्य में एनडीए और इंडिया ब्लॉक दोनों ने चुनावी मोर्चा संभाल लिया है. छत्तीसगढ़, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में आदिवासी सीटों पर शानदार परफॉर्मेंस के बाद बीजेपी को उम्मीद है कि वह झारखंड में भी अपने खोए हुए वोट बैंक को फिर से हासिल कर सकेगी. दूसरी ओर, झामुमो-कांग्रेस गठबंधन अपनी पुरानी फॉर्म में लौटने की कोशिश में जुटा है. कुल मिलाकर, ये चुनाव सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि झारखंड की सत्ता की चाबी हासिल करने का महायुद्ध है. कौन जीतेगा ये महायुद्ध, ये तो 23 नवंबर को ही पता चलेगा.