झारखंड में बीजेपी की करारी हार के पीछे क्या कारण हैं इसे लेकर मंथन का दौर जारी है। इंडिया गठबंधन को उम्मीद से अधिक छप्पन सीटें मिलीं और एनडीए चौबीस सीटों पर ही सिमट गया। भाजपा को बुरी हार मिली है। इससे भाजपा अंदर तक हिल गई है। भाजपा के अंदर से बदलाव की बात उठ रही है। भाजपा के संगठन में तब्दीली की बात हो रही है।
बाहरी नेताओं के हाथ में कमान होना
आइए अब हम आपको बताते हैं कि झारखंड में बीजेपी की हार कैसे हुई। इसे लेकर कई कारण गिनाए जा रहे हैं। प्रमुख कारण बाहर से आए नेताओं के हाथ में चुनावी कमान का होना माना जा रहा है। झारखंड में भाजपा की चुनाव की कमान मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान और असम के सीएम हिमंता बिस्वा सरमा के हाथों में रही। यह दोनों झारखंड की स्थानीय राजनीतिक स्थिति से वाकिफ नहीं थे। मगर, सारे फैसले यही दो नेता ले रहे थे। टिकट वितरण से लेकर किस नेता को पार्टी में लेना है। किसे पार्टी से दरकिनार करना है। इन सभी निर्णयों पर इन बाहरी नेताओं का ही असर रहा। इससे भाजपा के फैसले प्रभावित रहे। टिकट वितरण में भी सही निर्णय नहीं लिए जा सके। इससे भाजपा में बागियों की एक फौज तैयार हो गई, जिसने चुनाव में पार्टी का बंटाधार कर दिया।
चुनाव में सुस्त रहे टीम के कप्तान
भाजपा ने झारखंड का चुनाव बिना सीएम का चेहरा घोषित किए हुए लड़ा था। इस वजह से भाजपा की टीम का कोई कप्तान नहीं था। भाजपा के सीएम पद के दावेदारों बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, चंपई सोरेन समेत अन्य को यह आशंका थी कि पार्टी उनकी जगह कहीं दूसरे को सीएम न बना दे। किसी को यह पक्का भरोसा नहीं था कि वही सीएम बनेंगे। पार्टी किसी भी विधायक को उठा कर सीएम बना सकती है। इस वजह से भाजपा के सीएम पद के दावेदार दिग्गज नेता सुस्त रहे। अपनी तरफ से न तो बाबूलाल मरांडी ने कोई एक्सट्रा एफर्ट लिया और ना ही अर्जुन मुंडा और चंपई सोरेन ने। बाबूलाल मरांडी को चार जुलाई 2023 को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था। वह अपनी नई कमेटी तक नहीं बना पाए। भाजपा की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश की बनाई पुरानी कमेटी में रांची और उसके आसपास के ही पदाधिकारी रखे गए थे। कमेटी में कई जिलों का प्रतिनिधित्व नहीं होने से भी चुनाव परिणाम पर इसका असर पड़ा है।
आदिवासियों के बीच पकड़ नहीं बना सकी बीजेपी
आइए अब हम बात करते हैं आदिवासी सीटों पर भाजपा की दुर्दशा की। बीजेपी इस चुनाव में आदिवासियों के बीच पकड़ नहीं बना सकी। बीजेपी को 28 आदिवासी सीटों में से एक पर जीत मिली है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पांचों आदिवासी सीटों पर हार का मुंह देखना पडा था। इसके बाद भी बीजेपी नहीं संभल पाई। चुनाव शुरू होते ही झारखंड प्रभारी लक्ष्मी कांत वाजपेयी साइड लाइन कर दिए गए। वह चिल्लाते रहे कि पार्टी के संगठन मंत्री कर्मवीर सिंह, प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश पार्टी का भट्ठा बैठा रहे हैं। मगर, लक्ष्मी कांत की सुनने वाला कोई नहीं था। भाजपा में आदिवासी चेहरा माने जाने वाले बाबूलाल मरांडी आदिवासी सीट से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। वह सामान्य सीट से चुनाव लडे़। भाजपा के दूसरे महारथी अर्जुन मुंडा पोटका से अपनी पत्नी मीरा मुंडा को टिकट दिलाने की कोशिश में लगे रहे। टिकट मिलने के बाद पोटका में ही कैंप कर दिया। बाहर नहीं निकले। भाजपा में उरांव समाज का चेहरा बने समीर उरांव भी कुछ खास नहीं कर पाए। अब उरांव बाहुल्य सीट सिसई और बिशुनपुर में समीर उरांव की नहीं चलती।
लोहरदगा से लोकसभा चुनाव भी हार गए। कुल मिलाकर भाजपा में जो भी आदिवासी नेता हैं वह आउटडेटेड हो चुके हैं। राजनीति के जानकारों का कहना है कि यह आदिवासी नेता अब पार्टी को कुछ नहीं दे पा रहे हैं। बल्कि, पार्टी ही इन नेताओं को ढो रही है। कभी भाजपा की आदिवासी वोटरों में अच्छी पकड़ होती थी। भाजपा में कड़िया मुंडा जैसे आदिवासी नेता हुआ करते थे। अर्जुन मुंडा की पूरे प्रदेश भर में चलती थी। इन सबकी वजह से ही आदिवासी सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहता था। साल दो हजार में भाजपा ने 28 में से 14 सीटें जीती थीं। 2005 में नौ सीटें, 2014 में 11 सीटें, दो हजार उन्नीस में दो सीटें जीती थीं। इस साल के चुनाव में भाजपा को अठ्ठाईस आदिवासी सीटों में एक पर ही सिमट गई है। इसके पीछे भी एक बडी वजह है। यह वजब भी हम आपको बता देते हैं। साल दो हजार चौदह का विधानसभा चुनाव अर्जुन मुंडा के चेहरे पर लडा गया था। अर्जुन मुंडा ने पूरे प्रदेश की कमान संभाल रखी थी। सभी सीटों पर प्रचार किया। अपनी सीट खरसावां पर फोकस नहीं कर सके। वह खरसावां से हार गए। इसके बाद भाजपा ने पहली बार एक गैर आदिवासी नेता रघुवर दास को सीएम बना दिया। आदिवासियों के बीच यह बडा मुद्दा बन गया। तभी से आदिवासी डर गए हैं कि भाजपा फिर किसी गैर आदिवासी को सीएम बना देगी। इसी के बाद से अब आदिवासी सीटों पर भाजपा की पकड कमजोर पड गई है।
हवा-हवाई साबित हुए भाजपा के मुद्दे
आदिवासियों को लुभाने के लिए जो मुद्दे उठाए गए थे वह भी नहीं चल पाए। बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा भाजपा हर चुनाव में उठाती रही है। इससे जनता भी समझ गई है कि इस मुद्दे में कोई दम नहीं है। हेमंत सोरेन को जेल भेजे जाने की आदिवासियों के बीच प्रतिक्रिया देखी गई। इससे हेमंत सोरेन को आदिवासियों के बीच हमदर्दी मिली। हेमंत सोरेन आदिवासी समुदाय को यह समझाने में कामयाब हो गए कि भाजपा आदिवासी सीएम को देखना नहीं चाहती। इसी वजह से उन्हें परेशान किया गया है। हेमंत सोरेन अपने भाषणों में सरकार को को परेशान करने, काम नहीं करने देने और खुद को जेल भेजे जाने के मुद्दे पर ही फोकस करते रहे। सीएम हेमंत सोरेन ने चुनाव से ठीक पहले झारखंड मुख्यमंत्री मइयां सम्मान योजना लागू कर जनता की वाहवाही बटोर ली। भाजपा इसी योजना का काट ढूंढने में लगी रही। भाजपा ने गोगो दीदी योजना का जो शिगूफा छोडा उससे पार्टी को नुकसान ही हुआ। पार्टी ने गोगो दीदी का फार्म बांटना शुरू किया मगर, जनता के इन सवालों का जवाब नहीं दे पाए कि जब सरकार ने ऐसी कोई योजना नहीं चलाई तो फार्म कहां से छप कर आ गया। इस योजना में पैसा कब से मिलेगा। इससे जनता को लगा कि भाजपा वोटरों को ब्लफ देकर वोट हथियाना चाहती है।
संगठन में बदलाव कर सकती है बीजेपी
बीजेपी तीन दिसंबर को दिल्ली में एक बडी मीटिंग करने जा रही है। इस मीटिंग में झारखंड में हार के कारणों की समीक्षा होगी। बीजेपी में संगठन में बदलाव के सुर उठने लगे हैं। लोग मांग कर रहे हैं कि संगठन को बदला जाए। नई लीडरशिप उभारने की बात चल रही है। रघुवर दास को सीएम बनाने से पार्टी को जो नुकसान झेलना पडा था, उसी की भरपाई के लिए बाबूलाल मरांडी लाए गए थे। अब बाबूलाल मरांडी फेल हो गए हैं तो भाजपा का नया कप्तान कौन होगा। इसे लेकर कयास लगाए जा रहे हैं। अर्जुन मुंडा पर भले ही इस हार का ठीकरा फोडा जा रहा है। मगर यह सच्चाई है कि रघुवर दास की राह का कांटा साफ करने के लिए अर्जुन मुंडा को दिल्ली भेजा गया। इसके बाद से प्रदेश की सियासत में अर्जुन मुंडा का किरदार सीमित कर दिया गया है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि अगर बाबूलाल मरांडी की जगह पार्टी अर्जुन मुंडा पर भरोसा दिखाती तो शायद पार्टी की यह दुर्गति नहीं होती।