डूब चुकी है कोडा दंपति की सियासी नाव, लोकसभा व विधानसभा चुनाव में हार से टूटा हौसला
जमशेदपुर : झारखंड के सबसे अमीर राजनेता माने जाने वाले मधु कोड़ा और उनकी पत्नी गीता कोड़ा के युग का लगभग अंत हो गया है। मधु कोडा चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दे दिए गए हैं। चुनावी मैदान में उतरने के बाद जनता ने दो-दो बार गीता कोड़ा को झटका दे दिया। भविष्य में उन्हें जीत नसीब होगी या नहीं। भंवर में डूब चुकी अपनी सियासी नाव वह बचा पाएंगी या नहीं। कहना मुश्किल है। फिलहाल अभी जो सीन है उसमें कोड़ा दंपति का राजनीतिक जहाज लगभग पचीस साल की सियासी विरासत के साथ डूब चुका है।
पश्चिमी सिंहभूम जिले के गुवा में आयरन ओर की खदान में काम करने वाले मजदूर मधु कोड़ा के अंदर नेतागीरी कूट-कूट कर भरी थी। यह सियासी प्रतिभा गाहे-बगाहे सामने आती रहती थी। मधु कोड़ा मजदूरों पर जुल्म बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और धरना प्रदर्शन करते थे। बीजेपी ने पहली बार साल 1995 में मधु कोड़ा की राजनीतिक कुशलता का अनुभव किया और उन्हें जगन्नाथपुर विधानसभा सीट से टिकट दे दिया। मधु कोड़ा इस चुनाव में सफल नहीं हो सके। वह चुनाव हार गए। दरअसल, वह इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। जिस दिन उनके हार का एलान हुआ उसी दिन से वह अगले चुनाव की तैयारी में जुट गए थे। गांवों का दौरा करना। ग्रामीणों से सीधे रूबरू होना। नाराज लोगों को मनाना। यह उनका काम था। एक साल की मेहनत के बाद जगन्नाथपुर की जनता उनकी मुरीद हो गई थी। 4 साल तक मधु कोडा ने यह टेंपो बरकरार रखा। साल 2000 का चुनाव हुआ तो मधु कोड़ा बीजेपी के टिकट पर जीत कर विधायक बन गए। साल 2000 में झारखंड अलग राज्य बनने के बाद मधु कोड़ा बाबूलाल मरांडी की कैबिनेट में मंत्री बन गए। साल 2003 में बाबूलाल मरांडी ने इस्तीफा दे दिया तो अर्जुन मुंडा ने कुर्सी संभाली। तब मधु कोड़ा पंचायती राज मंत्री बनाए गए।
अचानक छोड कर चली गई थीं गीता कोड़ा
मंत्री पद मिलने के बाद मधु कोड़ा अपने सियासी कैरियर की तरफ तेजी से आगे बढ़ रहे थे। इसी बीच साल 2004 में मधु कोड़ा ने गीता कोड़ा के साथ शादी कर ली। मगर, शादी के आठ महीने बाद ही बदकिस्मती से गीता कोड़ा साथ छोड़ कर चली गईं। मधु कोड़ा के करीबियों का कहना है कि इससे उन्हें काफी झटका लगा। वह गुमसुम रहने लगे। लगा कि उनका कैरियर खत्म हो जाएगा। उनकी राजनीतिक नाव भंवर में फंस गई थी। साल 2005 के चुनाव में बीजेपी ने मधु कोड़ा को टिकट देने से इंकार कर दिया।
इस के बाद मधु कोडा तरोताजा हो कर अपने कैरियर को संवारने के लिए उठ खडे़ हुए। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का एक बड़ा जुआ खेला। अक्सर नेता जब अपनी पार्टी छोड़ कर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ता है तो कामयाबी के चांसेज कम होते हैं। बिरले नेता ही ऐसे मौके पर सफल होते हैं। उन्हीं बिरले नेताओं में मधु कोड़ा का भी शुमार होता है। मधु कोड़ा ने साल दो हजार पांच में जगन्नाथपुर विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार बन कर चुनाव लड़ा और जीत गए। बाद में उन्होंने एनडीए सरकार को समर्थन किया और अर्जुन मुंडा की सरकार में मंत्री बन गए। इसके बाद मधु कोड़ा का सितारा बुलंदियों के सफर पर निकल पडा। निर्दलीय उम्मीदवार कभी सीएम बनने की सोच भी नहीं सकता था। मगर, इसी को सियासत कहते हैं। कब किसके हक में बाजी पलट जाए। कौन आसमान से जमीन पर पटक दिया जाए और कौन फर्श से अचानक अर्श पर पहुंच जाए। मधु कोडा की किस्मत पलटी और वह सियासत के आसमान पर पहुंच गए। साल 2006 के सितंबर महीने में मधु कोडा और तीन अन्य निर्दलीय विधायकों ने अर्जुन मुंडा की भाजपा सरकार से अपना सपोर्ट वापस ले लिया। इससे सरकार गिर गई। तब 14 सितंबर 2006 को झारखंड की राजनीति ने ऐसी पलटी मारी कि मधु कोड़ा सीएम बन गए। निर्दलीय के तौर पर किसी राज्य की सत्ता संभालने वाले वह देश के तीसरे विधायक थे। उनसे पहले साल 1971 में ओडिशा में निर्दलीय विधायक बिश्वनाथ दास और दो हजार दो में मेघालय में निर्दलीय विधायक फ्लिंडर एंडरसन सीएम बन चुके थे। मधु कोड़ा को सरकार बनाने के लिए जेएमएम और कांग्रेस का समर्थन मिला था। मधु कोड़ा ने सत्ता की कमान संभाली तो उनके निजी जीवन में भी खुशियों की बहार आ गई। गीता कोडा घर लौट आईं।
निर्दलीय विधायक के तौर पर 22 महीने चलाई सरकार
22 महीने तक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ की सरकार चली। इस दौरान मधु कोड़ा सीएम के तौर पर देश ही नहीं दुनिया के राजनीतिक हलके में चर्चा का विषय बने रहे। उनके समय में अधिकाारियों का यह सूत्र वाक्य था- अच्छा काम करोगे तो मिलेगा मधु, खराब काम होगा तो चलेगा कोड़ा। मधु कोड़ा साल 2008 तक सीएम रहे। साल 2008 में जेएमएम ने मधु कोड़ा की सरकार से अपना सपोर्ट वापस ले लिया और मधु कोड़ा को हटना पडा। जेएमएम के सुप्रीमो शिबू सोरेन सीएम बन गए थे।
सीएम पद से हटने के बाद मधु कोड़ा ने साल 2009 में लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत गए। इसी बीच खनन घोटाले में मधु कोड़ा के खिलाफ केस हुआ। सीबीआई जांच हुई और 30 नवंबर 2009 को मधु कोड़ा को जेल जाना पडा। जेल में मधु कोड़ा 44 महीने तक रहे। यहां उन्होंने पाकिस्तान की दिवंगत प्रधानमंत्री बेनजीर की आत्मकथा डाटर आफ डेस्टिनी पढी और इससे उन्हें हौसला मिला। साल 2011 में जेल में कैदियों ने मिल कर मधु कोड़ा को पीट दिया था। इस मारपीट में कोड़ा का हाथ टूट गया था। बाद में 31 जुलाई 2013 को उन्हें जमानत मिल गई।
कांग्रेस का साथ छोडना पडा भारी
इधर, मधु कोड़ा के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी गीता कोड़ा ने अपने पति की राजनीतिक विरासत संभालने का बीड़ा उठाया। साल 2009 और साल 2014 में गीता कोड़ा जगन्नाथपुर से चुनाव जीत कर विधायक बन गईं। गीता कोड़ा साल 2019 में कांग्रेस में शामिल हो गईं और पार्टी के टिकट पर सिंहभूम से चुनाव लड़ कर सांसद बन गईं। गीता कोड़ा और मधु कोड़ा जब तक कांग्रेस के साथ रहे वह आगे बढ़ते रहे। कांग्रेस ने कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो उन्हें काम करने की पूरी आजादी थी। मगर, गीता कोड़ा ने लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और भाजपा में चली गईं। जैसे ही भाजपा ज्वाइन की उनका राजनीतिक कैरियर ढलने लगा। गीता कोड़ा सिंहभूम लोकसभा चुनाव हार गईं। बाद में जगन्नाथपुर सीट से भी उन्हें पराजय का स्वाद चखना पड़ा।
कोड़ा दंपति को भाजपा ज्वाइन करना नहीं आया रास
साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले गीता कोड़ा का कांग्रेस छोड़ना उनके राजनीतिक कैरियर की सबसे बड़ी गलती थी। वह भाजपा में शामिल हो गई थीं। इस गलती का नतीजा सामने आने लगा। इसी के बाद उनकी बुलंदियों का सितारा नीचे आने लगा। गीता कोड़ा ने सोचा था कि वह बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीत कर सांसद बन जाएंगी। मगर, ऐसा नहीं हुआ। कोडा दंपति के समर्थक उन्हें भाजपा के साथ ऐक्सेप्ट नहीं कर पाए। भाजपा के कार्यकर्ता भी गीता कोडा को पार्टी में नहीं पचा पा रहे थे। इस तरह, कोडा दंपति के पास समर्पित कार्यकर्ताओं की कमी हो गई। वह चुनाव हार गईं। लोकसभा चुनाव हारने के बाद गीता कोड़ा ने जगन्नाथपुर से विधानसभा चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई। मगर, यहां से वह मधु कोड़ा के ही पुराने मित्र रहे सोनाराम सिंकू से पराजित हो गईं। इस तरह, मधु कोड़ा और गीता कोड़ा की राजनीतिक विरासत का फिलहाल अंत हो गया है। अब कोड़ा दंपति की सदनीय सियासत में वापसी होगी या नहीं। इसके लिए पांच साल तक इंतजार करना होगा।