विधानसभा चुनाव में हार के बाद सियासी हाशिए पर चले गए नेता
झारखंड विधानसभा चुनाव ने प्रदेश के चार बडे लीडर के सियासी कैरियर पर ग्रहण लगा दिया है। यह लीडर पहले लोकसभा चुनाव हारे। फिर विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई। यहां भी इन लीडरों को मुंह की खानी पडी। अब इन नेताओं को आगे का सियासी भविष्य अंधकार में नजर आ रहा है। अब इन नेताओं को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर आगे अपने कैरियर को पटरी पर कैस लाएं। विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आने के बाद यह नेता अब इस उधेड़बुन में मशगूल हैं।
अर्जुन मुंडा
इस चुनाव ने जिन लीडरों की सियासत पर सवालिया निशान लगा दिया है उनमें पहला नाम आता है अर्जुन मुंडा का। अर्जुन मुंडा खरसावां विधानसभा सीट से 1995, 2000, 2005 और 2010 के चुनाव जीत कर विधायक बने थे। वह तीन बार 2003, 2005 और 2010 में झारखंड के मुख्यमंत्री भी बने। अर्जुन मुंडा झारखंड की सियासत के कद्दावर नेता माने जाते हैं। मगर, साल 2014 के चुनाव में वह जेएमएम के दशरथ गागराई से चुनाव हार गए तो अपना क्षेत्र बदल लिया। अर्जुन मुंडा ने अगला चुनाव खूंटी से लडा और लोकसभा पहुंच गए। खूंटी को भी वह साध नहीं सके। इस बार हुए लोकसभा चुनाव 2024 में अर्जुन मुंडा को खूंटी की जनता ने नकार दिया। इसके बाद अर्जुन मुंडा ने अपना सियासी कद बरकरार रखने के लिए अपनी पत्नी मीरा मुंडा को मैदान में उतार दिया। पोटका में पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा ने चुनाव कै दौरान पत्नी को जिताने के लिए पोटका में कैंप कर दिया। एडी चोटी का जोर लगा दिया। स्टार प्रचारक के तौर पर बालीवुड स्टार मिथुन चक्रवर्ती का रोड शो करा दिया। मगर, इसके बाद भी वह कामयाब नहीं हो सके। उनकी पत्नी मीरा मुंडा चुनाव हार गईं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अब अर्जुन मुंडा का सियासी कैरियर ढलान पर है। यही वजह है कि किस्मत उनका साथ नहीं दे रही है। राजनीतिक टीकाकारों का कहना है कि अब अर्जुन मुंडा की सियासत पनप पाएगी इसमें संदेह है। वह अपनी राजनीतिक सियासत कैसे आगे बढाएंगे। इस पर चर्चा होने लगी है।
डाक्टर अजय कुमार
इस कडी में अगला नाम आता है कांग्रेस के डाक्टर अजय कुमार का। डाक्टर अजय कुमार ने साल 2011 में बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा के सहारे राजनीति में कदम रखा था। तब उन्होंने जमशेदपुर लोकसभा सीट से चुनाव लडा। डाक्टर अजय कुमार की इमेज की वजह से उन्हें जनता का भरपूर प्यार मिला। डाक्टर अजय कुमार ने भाजपा के दिनेशानंद गोस्वामी को 1 लाख 55 हजार 526 मतों से हराया था। मगर डाक्टर अजय कुमार साल 2014 का चुनाव हार गए। दरअसल यह वह चुनाव था जब मतदाता मोदी मैजिक का दीवाना था। तब भी डाक्टर अजय कुमार को 3 लाख 64 हजार 277 वोट मिल गए थे। भाजपा के विद्युत वरण महतो को 4 लाख 64 हजार एक 153 वोट मिले थे। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि डाक्टर अजय कुमार को साल 2019 का चुनाव लडना चाहिए था। इस चुनाव में वह अपनी वापसी कर सकते थे। यही नहीं, डाक्टर अजय कुमार को कई राजनीतिक सलाहकारों ने साल 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने की सलाह दी थी। शुरुआत में डाक्टर अजय कुमार इस चुनाव में कूदने का मन बनाए हुए थे। वह ग्रामीण इलाकों में पहुंचने लगे थे। मगर, अचानक डाक्टर अजय कुमार बैकफुट पर आ गए। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि लोकसभा का चुनाव डाक्टर अजय कुमार के लिए आसान था। उस चुनाव में भाजपा के खिलाफ माहौल भी बना हुआ था। डाक्टर अजय कुमार को ग्रामीण इलाकों में जेएमएम के वोट मिल जाते। शहर में कांग्रेस थोडा बहुत बटोर लेती। डाक्टर अजय कुमार भाजपा के साथ क्लोज फाइट में रहते। मगर, डाक्टर अजय कुमार ने लोकसभा का चुनाव न लड कर विधानसभा का चुनाव चुना। यह चुनाव डाक्टर अजय कुमार के लिए इसलिए बेहद टफ था क्योंकि उन्होंने जमशेदपुर पूर्वी की सीट चुनी थी। यह सीट भाजपा का गढ है और यहां साठ हजार से अधिक भाजपा के कैडर वोटर हैं। अब विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद डाक्टर अजय कुमार के ऊपर लगातार चुनाव हारने वाले नेता का टैग लग गया है। इस वजह से अब उनका आगे का सियासी कैरियर दांव पर है। डाक्टर अजय कुमार को संगठन में काम करने का मौका मिल सकता है। कांग्रेस उन्हें कहीं से मौका मिलने पर राज्य सभा भेज सकती है। मगर, धरातल पर उतर कर उनका चुनाव जीत पाना बेहद मुश्किल लग रहा है।
कोड़ा दपंति
घोटाले में सजा होने के बाद पूर्व सीएम मधु कोड़ा का सियासी कैरियर खत्म हुआ ही। बिना सोचे समझे फैसला लेने पर मधु कोड़ा ने अपनी पत्नी गीता कोड़ा के पैर पर भी कुल्हाडी मार दी। सीन देखिए। गीता कोड़ा सिंहभूम की सांसद थीं। अगर वह बीजेपी में नहीं जातीं तो कांग्रेस से उन्हीं को टिकट मिलता। दोबारा जीत कर वह सांसद बनी रह सकती थीं। मगर, पता नहीं किसकी राय से मधु कोडा ने अपने परिवार के भरे पूरे सियासी कैरियर को तबाह कर दिया। ऐन लोकसभा चुनाव से पहले गीता कोड़ा भाजपा में चली गईं। दरअसल, मधु कोड़ा बीजेपी की चाल में फंस गए। बीजेपी ने कोल्हान को साधने के चक्कर में गीता कोड़ा को भाजपा में लाने का प्लान बनाया। बीजेपी का प्लान था कि सिंहभूम की सीट निकाल लेंगे और इसका फायदा विधानसभा चुनाव में भी सिंहभूम के तहत आने वाली विधानसभा सीटों पर पडे़गा। इन विधानसभा सीटों पर भाजपा मजबूत हो जाएगी। मगर, ऐसा नहीं हो सका। गीता कोड़ा लोकसभा का चुनाव हार गईं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि तभी मधु कोड़ा की आंख खुल जानी चाहिए थी। मगर, वह समझ नहीं पाए और खुद भी बीजेपी ज्वाइन कर ली। मधु कोड़ा ने सोचा था कि वह पत्नी गीता कोड़ा को जगन्नाथपुर से जिता कर परिवार का सियासी कैरियर बचा ले जाएंगे। मगर, गीता कोड़ा हार गईं। इस तरह गीता कोड़ा का सियासी कैरियर सवालों के घेरे में आ गया है। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि गीता कोड़ा को भाजपा के कार्यकर्ताओं का साथ नहीं मिल पाया। कार्यकर्ता उनके साथ तालमेल नहीं बना पाए। इसके चलते गीता कोड़ा को लगातार हार मिली। जबकि, गीता कोड़ा जगन्नाथपुर से ही साल 2009 और साल 2014 के चुनाव में अपनी जयभारत समानता पार्टी के टिकट पर यहां से जीत चुकी थीं। उनके पति मधु कोडा भी इस सीट से इसी पार्टी से 1995 के चुनाव में जीते थे। अब कोडा दंपति के राजनीतिक भविष्य को लेकर चर्चा शुरू हो गई है।
सीता सोरेन
शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन जामा से विधायक थीं। उन्होंने दो हजार नौ 2009 के चुनाव में जामा सीट जीती थी। 2014 और 2019 में सीता सोरेन इसी सीट से विधायक बनी थीं। उनका कैरियर अच्छा भला चल रहा था। बीजेपी संथाल में खुद को मजबूत करना चाहती थी। वह चाहती थी कि झारखंड से लोकसभा चुनाव में अधिक से अधिक सीट मिले। इसके लिए अगर शिबू सोरेन के परिवार का कोई लीडर भाजपा में आ जाए तो क्या अच्छा होगा। यह खेल बीजेपी यूपी में मुलायम सिंह यादव की बहू को भाजपा में लाकर खेल चुकी थी। इसी सियासी दांव को संथाल में आजमाया गया और सीता सोरेन को भाजपा में लाया गया। मगर, दुमका लोकसभा सीट से सीता सोरेन चुनाव हार गईं। अब विधानसभा चुनाव ही उनका सहारा था। इसी चुनाव से सीता सोरेन का कैरियर आगे बढना था। होना यह चाहिए था कि सीता सोरेन को जामा से टिकट मिलता। मगर, भाजपा ने उन्हें जामा से टिकट न देकर जामताड़ा में कांग्रेस के दिग्गज नेता इरफान अंसारी के सामने खडा कर दिया। सीता सोरेन इरफान अंसारी के सामने कमजोर पड़ जाएंगी यह सभी जानते थे। हुआ भी यही। सीता सोरेन इरफान अंसारी से 43 हजार 676 वोटों से हार गईं। इरफान अंसारी को 1 लाख 33 हजार 266 वोट मिले। तो वहीं, सीता सोरेन को 89 हजार 590 वोट। कहा जा रहा है कि भाजपा ने सीता सोरेन को हल्के में लिया। अगर, पार्टी सीता सोरेन को कुछ समझती तो जामा से उन्हीं को टिकट देती। क्योंकि, वह जामा से चुनाव जीत चुकी थीं। जामा में उनका अपना नेटवर्क था। लोगों से जान पहचान थी। उन्हें नई जगह नहीं भेजना चाहिए था। वहीं, भाजपा की लुइस मरांडी ने दिमाग लगाया और जेएमएम ज्वाइन कर ली। हेमंत सोरेन ने उन्हें जामा से टिकट भी दे दिया और लुइस मरांडी जीत गईं। जामतड़ा से हार के बाद सीता सोरेन के कैरियर को लेकर बहस चल रही है। अब उनके कैरियर के अंतिम पडाव पर होने की बात कही जा रही है। माना जा रहा है कि अब सीता सोरेन की राजनीतिक विरासत उनकी बेटी आगे बढाएगी।
दिनेशानंद गोस्वामी
अब बात करते हैं भाजपा के नेता दिनेशानंद गोस्वामी की। भाजपा का यह दिग्गज नेता अब तक चुनाव नहीं जीत पाया। साल 2011 में दिनेशानंद गोस्वामी ने जमशेदपुर लोकसभा सीट से चुनाव लडने का फैसला किया। भाजपा ने उन्हें टिकट भी दे दिया। मगर, दिनेशानंद चुनाव नहीं जीत पाए। इस बार के विधानसभा चुनाव 2024 में दिनेशानंद गोस्वामी ने टिकट हासिल कर लिया। मगर, जीत नहीं पाए। वह जेएमएम के समीर मोहंती से 18 हजार 125 वोट से हार गए। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अब दिनेशानंद गोस्वामी शायद ही कोई चुनाव जीत पाएं। अब उन्हें टिकट भी मिलना मुश्किल हो सकता है। बताते हैं कि दिनेशानंद गोस्वामी का कद भले ही पार्टी में ऊंचा हो मगर, जमीन पर उनका कद जीरो है। आम जनता की पहुंच से वह दूर रहते हैं। इसी वजह से उनकी हार हुई है।
लोबिन हेंब्रम
यही हाल लोबिन हेंब्रम का हुआ। लोबिन हेंब्रम बोरियो के विधायक हुआ करते थे। सूत्र बताते हैं कि वह इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के कहने पर राजमहल से चुनाव लड़ गए। पार्टी ने निकाल दिया तो बीजेपी में चले गए। बीजेपी ने उन्हें बोरियो से ही टिकट दिया था मगर, लोबिन जेएमए के उम्मीदवार धनंजय सोरेन उन्नीस हजार दो सौ तिहत्तर वोटों से चुनाव हार गए। भाजपा में जाने वालों में पूर्व सीएम चंपई सोरेन ही अपनी सीट बचा पाए हैं। टिकट मिलने के बाद भी वह अपने बेटे बाबूलाल सोरेन को विधायक नहीं बना पाए।